Monday, August 14, 2017

मेरी पुस्तक।

कुछ पन्नो को
काँट छाँट
कभी एक साथ
कभी बाँट बाँट
ऊपर नीचे
फिर दाँये बाँये
कभी जोड़ घटा
आगे पीछे
सुई से किए
बड़े तीन छेद
धागे को ले
किया आर-पार
बांधा पन्नो को
साथ-साथ
कपड़ा काटा
बस एक सार
ऊपर साधा
फिर खींच-खाँच
और जिल्द चडा
किया लाईं-लेप

प्रेरणा स्त्रोत

तुम्हें पा कर
एक अहसास
हाथो से सहेज, सहला,
सुखद अनुभूति
तुम मेरे पास हो

चेतन या जड़
तुम मेरे पास हो

Sunday, May 4, 2014

ख़ेल

तुम बनाओ, और मै मिटाउं।
कैसा खेल है यह?
जो न चाहते हुए भी अच्छा लगता है।
और फिर तुम्हारा यूँ मनाना, दिल करता है कि बार बार तुम बनाओ और बार बार मैं मिटाउं।
और यह खेल चलता रहे...
काश, तुम इसे समझ पाते।

Sunday, April 13, 2014

संवाद:

कभी सपने देखती हो ?
हाँ, शायाद हर रात।
कभी सपनो मे जी कर देखा है ?
सपनो मे ?
हाँ। वंहा धूप भी होती है, छाओं भी, गहरे काले बादल, नीला आकाश और दूर दूर तक फैली धरती

पागल हो तुम

मैं जनता हूँ ।

Thursday, October 25, 2012

एक कोना, जीवन का।

किस कोने की बात करती हो ?

मैं तो बस अपनी बीते जीवन की कहानी बयान कर रहा था। और तुम हो के ढ़ूढ़ने लगी मेरे जीवन के उस कोने को? वँहा पहुंचना चाहती हो जो मेरे जीवन का अपना कोना है? क्या जानती हो, 
वँहा  तक पहुँचने में सरकना पड़ता है। बहुत ही झुक कर चलना पड़ता है। बरसो लग जाएँगे। थक जाओगी, और फिर कोशिश छोड़ दोगी।

और हाँ, फिर वो कोना तो मेरा है, मेरा अपना। और मैं तो अब वंहा खुद भी जाना नहीं चाहता।


फिर तुम क्यूँ जाना चाहती हो ?

हमारा जीवन।


तेरा जीवन
मेरा जीवन
बिन वस्त्रो के, कुछ वस्त्रो का
कुछ साँसों में, बिन साँसों का
तेरा जीवन
मेरा जीवन

निस्तब्धता को बींधता हुआ
आलिंगन में घेरता हुआ
तेरा जीवन
मेरा जीवन

अस्रुओ की धारा में
स्मृतियों की मधुशाला में
कुछ कौंधता है, कुछ रौंदता है
तेरा जीवन
मेरा जीवन

कभी चलता है कभी रुकता है
कभी हँसता है, कभी रोता है
अनजाने में सब कहता है
तेरा जीवन
मेरा जीवन

रात्री के मध्य में
प्रणय के मोती चुनता है
फिर एक ओर करवट कर के
जाने क्यूँ सो जाता है

तेरा जीवन
मेरा जीवन

- 22/10/2012

Monday, October 8, 2012

सिगरेट का कश।

वो - इतनी सिग्रेट तो मत पियो करो।
मैं - क्यों ?
वो- धुएं में तुम्हारा चेहरा छुप जाता है।
मैं - हां हाँ, अंच्छा बाबा अब और नहीं। देख लो जितना देखना है
वो - फिर क्या मालूम,...
मैं - क्या? हाँ हाँ हाँ, कंही सिगरेट ही मिले न मिले? यंही कहना है न ?


Wednesday, May 2, 2012

मन गुनगुनाता है।

मन गुनगुनाता है
जाने कहाँ जाता है
आकाश की ऊँचाई से
सागर की गहरायी को
जाने क्या बताता है।

मन गुनगुनाता है।

रोज़ के शोरगुल से,
सन्नाटो की मौनता से
फिर से मिल के आता है
और उन में खो जाता है।

मन गुनगुनाता है।

रास्ते पर अनभिज्ञता से,
मंजिल कहाँ पाता है
यूँही चला जाता है
फिर क्यूँ गुनगुनाता है।

Saturday, December 31, 2011

बस यूँही ।

कैसे कह दू के तुम सब से हट कर हो,
तुम ही तो तो थे जो मेरे हमसफ़र बन कर मेरे साथ चले,
तुम ही तो थे जो मेरे ख्वाबो में थे,
तुम ही तो हर वक़्त मेरे ख्यालो और मेरी सांसो में थे,
और अब क्यूँ कहते हो के मैं खुद से यह कहू की तुम सब से हट कर हो ?
तुम तो मेरी रग रग में बसे हो,
मेरी जिस्म की जान बन कर.