मन गुनगुनाता है
जाने कहाँ जाता है
आकाश की ऊँचाई से
सागर की गहरायी को
जाने क्या बताता है।
मन गुनगुनाता है।
रोज़ के शोरगुल से,
सन्नाटो की मौनता से
फिर से मिल के आता है
और उन में खो जाता है।
मन गुनगुनाता है।
रास्ते पर अनभिज्ञता से,
मंजिल कहाँ पाता है
यूँही चला जाता है
फिर क्यूँ गुनगुनाता है।
जाने कहाँ जाता है
आकाश की ऊँचाई से
सागर की गहरायी को
जाने क्या बताता है।
मन गुनगुनाता है।
रोज़ के शोरगुल से,
सन्नाटो की मौनता से
फिर से मिल के आता है
और उन में खो जाता है।
मन गुनगुनाता है।
रास्ते पर अनभिज्ञता से,
मंजिल कहाँ पाता है
यूँही चला जाता है
फिर क्यूँ गुनगुनाता है।
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