क्या कभी सपने
कोंध्ते हुए आते है
रोंदते है यादो को
कुचल देते है अरमान
और तिलमिला देते है अंतर आत्मा को
सपनो तुम क्यूँ आते हो
तुम तो अपने गहन, निश्चल
सीमायों से परे लोकं में
विचरण करते हो
फिर क्यूँ नीरव, सपाट लोक
की सैर को चल देते हो
कभी क्या तुमने सोचा है
अपने प्रतिबिम्ब के परिणामो को
क्या देखा है उतर कर
ह्रदय की गहराई को
सपनो तुम तो अपना खेल
खेलना जानते हो
नहीं जानते मेरी संवेदनाओ को
और नहीं जानते संवेदनाओ से परे
छिपी जीवन की सचाई को
तुम तो बस आ जाते हो
यकायक कोंध्ते हुए,
तुम तो बस आ जाते हो
यकायक कोंध्ते हुए,
रोंदने के लिए कुछ अरमानो को
और तिलमिला देते हो अंतर आत्मा को
No comments:
Post a Comment